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हम भारत के लोग …

फंटूश
फंटूश
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मुझे बहुत कुछ, बहुत ठीक नहीं लग रहा है। यह बड़ा भयावह है। मैं देख रहा हूं-हम भारत के लोग …, अपने संविधान की ये शुरुआती पंक्तियां कठघरे में लाई जा रहीं हैं। जो अंदाज है, बहुत जल्द हमारी एकजुटता की यह बुनियाद खासकर बिहारियों की जेहन में बहुत सहूलियत से नहीं उतर पाएगी। सीमांध्र और उसके विशेष स्वरूप (दर्जा) के हवाले बिहार की घोर उपेक्षा की जो सच्चाई प्रचारित है, वह इस सवाल को ताकतवर बना सकती है कि वाकई बिहार, भारत का अंग है? अपना महान भारत, इस खतरनाक स्थिति की जिम्मेदारी पर मजे की बहस कर सकता है। बहस, अपने खून में है।

मैंने भी अब मान लिया है कि दिल्ली सर्वशक्तिमान है। कुछ भी कर सकती है। सीमांध्र गवाह है कि विशेष दर्जा हासिल करने के लिए बस एक ही शर्त है-दिल्ली (केंद्र सरकार) की इच्छा। ऐसे में आदर्श संघीय व्यवस्था और संविधान में दर्ज सुनहरी व्यवस्था या शब्दों का मतलब रहता है?

मेरी राय में इस बहस में पड़े बिना कि बिहार को विशेष दर्जा के मसले पर किस पार्टी को कितना नफा-नुकसान होगा; कि कौन लंगड़ीमार है; कि बिहार को लेकर दिल्ली में मजबूत लॉबी क्यों नहीं बनी; कि एकजुट आंदोलन क्यों नहीं हुआ-इस बात से किसे इनकार होगा कि बिहार की एतिहासिक उपेक्षा हुई है?

मुझे कुछ पुरानी बातें याद आ रहीं हैं। एक अप्रैल 1936 को बिहार, उड़ीसा से अलग हो स्वतंत्र अस्तित्व में आया। 1935 के दौरान बिहार-उड़ीसा ने प्रति टन कोयले पर 25 पैसे की रायल्टी दिल्ली (केंद्र) से मांगी थी। दिल्ली ने इंकार कर दिया। सीमांध्र को विशेष दर्जा देते वक्त भी दिल्ली का यही भाव दिखा है। यह पहला और आखिरी नहीं है। 1935 में उड़ीसा से अलग होते वक्त भी बिहार पंजाब, बंबई, बंगाल आदि राज्यों से काफी गरीब था। बिहार को फिर झारखंड का शोषक बता बांट दिया गया, जबकि विभाजन के समय झारखंड की प्रति व्यक्ति आमदनी 1544 रुपए थी और बिहार की सिर्फ 901 रुपए। तब भी पैकेज नहीं मिला? क्यों? क्या यह सच्चाई नहीं है कि आजादी के बाद बिहार, आंतरिक उपनिवेश रहा? शुरू से यहां के खनिजों का असली मालिक दिल्ली रही। खनिज बिहार के और कारखाने लगते रहे दूसरे राज्यों में। बिहार की कंगाली की कीमत पर दूसरे राज्य अमीर होते गये। भाड़ा समानीकरण (फ्रेट इक्वालाइजेशन) की नीति ने तो यहां की अर्थव्यवस्था को पूरी तरह बर्बाद कर दिया। भौगोलिक स्थिति के मद्देनजर दक्षिण बिहार (अब झारखंड) के क्षेत्रों में आधारभूत संरचना व उद्योगों की स्थापना के रूप में 24 हजार करोड़ रुपये के निवेश हुए थे। विभाजन के बाद बिहार के हिस्से क्या आया?

कौन नहीं जानता कि मानव विकास के तमाम सूचकांक के मामले में बिहार निचले पायदान पर है। स्वयं केंद्र सरकार व उसकी एजेंसियां ऐसा कहतीं रहीं हैं। अभी बिहार की जो विकास दर है, उस रफ्तार में उसे राष्ट्रीय औसत के करीब पहुंचने में कम से कम 25 वर्ष लगेंगे। इतना लम्बा इंतजार कोई कर सकता है? भारत के समावेशी व टिकाऊ विकास के लिए बिहार को विशेष दर्जा जरूरी है, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का यह तर्क गलत है? जनसंख्या के लिहाज से देश की कुल आबादी का आठ प्रतिशत हिस्सा बिहार में है और राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद में बिहार का योगदान सिर्फ 2.92 फीसद है। गलत है?

इसका जवाब कौन देगा कि बिहार में प्रति व्यक्ति खर्च 3600 रुपये है, जबकि राष्ट्रीय औसत है 6100 रुपये। क्यों है? इसके लिए कौन जिम्मेदार है कि बिहार में प्रति एक लाख की आबादी पर सिर्फ 4.25 किलोमीटर सड़क है, जबकि असम में यह आंकड़ा 8.57 किमी और हिमाचलप्रदेश में 4.89 किमी है। बिहार में प्रति व्यक्ति ऊर्जा की खपत 122.21 यूनिट है, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर प्रति व्यक्ति ऊर्जा की खपत 778.71 यूनिट है। फिर सालाना बाढ़, सूखा …, केंद्र की कोई जिम्मेदारी बनती है या नहीं?

मैं समझता हूं कि पहली बार बिहार ने चौहत्तर को अपना चेहरा बदलने का मौका बनाया। लेकिन बाद के कालखंड में दुर्भाग्य से घूमकर फिर वहीं पहुंच गया। भ्रष्टïाचार, जातीयता, अपराध का राजनीतिकरण …, चौहत्तर से बिहार की राजनीतिक यात्रा, नेताओं के व्यक्तिगत स्वार्थ, उनकी पदलोलुपता और इससे जुड़ी सरकार बनाने- गिराने की कहानी से ज्यादा कुछ नहीं रही। इस पृष्ठभूमि में विशेष राज्य के दर्जा का मसला और इससे जुड़ा चरणबद्ध आंदोलन पहली बार सबको बखूबी बता गया कि विकास भी मुद्दा बन सकता है। बेशक, इस मसले पर बिहार विधानमंडल से सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित हुआ था। सबकी जिम्मेदारी थी। कितनों ने पूरी की? जदयू आंदोलन के मोर्चे पर आगे बढ़ा। दूसरों को यह सब करने से किसने रोका था? जदयू ने अपने हिसाब से इस मसले को साढ़े दस करोड़ बिहारियों के अरमान के रूप में प्रचारित कर दिया है। दूसरे क्यों पीछे रह गए?

थोड़ा भटक गया था। बात सीमांध्र के विशेष दर्जा के हवाले बिहार की मांग की हो रही थी। तो क्या बिहार को विकसित राज्यों की बराबरी में खड़ा होने का अधिकार नहीं है? क्या यह उसके अपने बूते की बात है? बिहार, लद्दाख में सड़क बनाता रहेगा? कोलकाता में रिक्सा खिंचता रहेगा? दिल्ली खातिर वह सिण्ड्रोम रहेगा? मुंबई में राज ठाकरे का एजेंडा रहेगा? वह रॉ-मैटेरियल रहेगा, जिसे जो जब चाहे अपने हिसाब से कुछ भी बना ले? ऐसे में हम भारत के लोग …?

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