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नोटा के बाद क्या?

फंटूश
फंटूश
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देखने वाली बात होगी कि नोटा, यानी इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन पर लगी नापसंदगी की बटन को कितने लोगों ने दबाया? कितनों ने यह बताया कि उनके क्षेत्र का जो भी उम्मीदवार था, उसे पसंद नहीं किया गया? यह शोध का नया विषय होगा। इसके अपने विश्लेषण होंगे। ढेर सारे लोग शोधार्थी- विश्लेषक हो जाएंगे। पहली बार ऐसा इंतजाम हुआ है।

लेकिन इससे हो क्या जाएगा? नेता, अपनी आदत उस लायक सुधार लेंगे, जिसके चलते इवीएम में इस बटन को लगाने की जरूरत पड़ी है? और बिहार तो कई मायनों में नोटा के अगले चरण की जरूरत पेश किए हुए है। यह क्या होगा? कब होगा? होगा भी कि नहीं? तब क्या होगा? अबकी लोकसभा चुनाव ने ऐसे कई सवालों को खूब उभारा है। इसको मजबूत जमीन दी है।

असल में नोटा, राइट टू रिकॉल का रिवर्स गियर है। राइट टू रिकॉल, यानी चुने गए जनप्रतिनिधि को उसका कार्यकाल पूरा होने से पहले वापस बुला लेने का अधिकार। लोकतंत्र में जनता की मालिकाना ताकत को स्थापित किए रहने के स्वाभाविक उद्देश्य को पूरा करने के लिए यह अधिकार मांगा गया था। यह जनप्रतिनिधि को पटरी पर रखने, दायित्व के ईमानदार निर्वहन के लिए विवश किए रहने की कारगर व्यवस्था हो सकती थी। राइट टू रिकॉल, चौहत्तर आंदोलन का खास एजेंडा था। संपूर्ण क्रांति को वास्तव में आकार देने का बुनियादी तत्व था। इसके बदले नोटा मिला। बहुत इंतजार व मशक्कत के बाद इस रूप में कि सिस्टम ने मालिक जनता पर बड़ी कृपा की है। उसे उम्मीदवारों की नकारने का ऑप्शन दिया है। वह शक्ति दी गई है, जिससे उसे लगे कि वाकई, वही मालिक है। सही में ऐसा है? आखिर नोटा की  हैसियत क्या है? यह इंतजाम तो यही कहता है कि अगर नापसंदगी का प्रतिशत, गिरे वोटों से ज्यादा हो, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा। उम्मीदवार, संसद पहुंच जाएगा। चाहे उसको मिले वोटों की मात्रा जो हो। अपनी चुनावी प्रक्रिया या तिकड़म का हाल यह है कि सोलह-सत्रह फीसद वोट पाकर भी लोग सांसद या विधायक बन जाते हैं। यह गवाही है कि नोटा, लोकतंत्र के महापर्व में सिस्टम की तरफ से जनता को बंटा लॉलीपॉप या झुनझुना भर है। हां, इसके नाम पर आगे के कई-कई चुनावों तक जनता, उसके फैसलों के प्रदर्शन आदि पर चर्चा-बहस खूब हो सकती है। नए समाजशास्त्री, राजनीतिशास्त्री पैदा होंगे। और वह जनता, जो पूरी चुनावी प्रक्रिया में उदासीनता का पर्याय बना दी गई है, उसका क्या होगा? बिहार के किसी भी क्षेत्र में चले जाइए, बेहद उदासीन भाव को जीने वाले वोटर थोक भाव में हैं। इनकी बातें नोटा के बाद के असरदार चरण चाहती हैं। मिलेगा?

सबसे दिलचस्प है कि नोटा को कायदे से प्रचारित नहीं किया गया। क्यों? यह सुविधाजनक सिस्टम को जनता की खलल से दूर रखने की चालाकी नहीं है?

इस बार के चुनाव में लोग नेताओं से इसलिए भी सवाल नहीं पूछ रहे हैं कि इसका कोई मतलब नहीं है। कोई फायदा नहीं है। नेताओं ने इसे शुरू में ही समझ लिया और इसी हिसाब से जनता को चार्ज करने की नीति बनाई। शाब्दिक वर्णन से परे बदजुबानी, गलाकाट आरोप-प्रत्यारोप, फिर जाति-कौम …, जनता नेताओं के ट्रैप में आ गई, चार्ज भी हो गई। हालांकि इस परंपरागत तरीके की उम्र अब बहुत लम्बी नहीं दिखती है। प्रदेश में चुनावी शांति का एक पक्ष, जनता की उदासीनता भी है। लोगों में विकसित हुई यह समझ बड़े मार्के की है कि अब वह नेताओं के लिए मरने-मारने पर उतारू नहीं होती है। लोग जान गए हैं कि मरने-मारने के दौरान और बाद में भी नेता पूछने नहीं आता है। पहले के चुनावों में चुनाव के बाद भी हिंसा होती रहती थी। गांवों में जातीय तनाव हो जाता था। इस बार अभी तक ऐसा नोट करने लायक नहीं हुआ है। छिटपुट घटनाएं जरूर हुईं हैं। जनता की यह समझ नोटा से संतुष्टï होगी? कब तक रहेगी?

प्रदेश के कई संसदीय क्षेत्रों में तो लोग बूथ पर नोटा का बटन भी नहीं दबाने गए। उन्होंने अपनी समस्याओं का बैनर खुलेआम टांगा, नारे लगाए और वोट का बहिष्कार किया। इस मामले में आम लोगों ने अभी तक नक्सलियों को भी पीछे छोड़ा हुआ है। यह नोटा के अगले चरण के दरकार की अघोषित मुनादी नहीं है?

जनता चुप है। बस, नेता बोल रहे हैं। हां, जनता की बजाए उसकी जाति जरूर बोल रही है। लोग क्यों चुप हैं? क्यों, नेताओं को सुनकर चुपचाप घर लौट आते हैं? यह चुप्पी बड़ी खतरनाक है। पब्लिक का गुस्सा एग्जॉस्ट नहीं हो रहा है। यह नोटा के अगले चरण का तगादा कर सकता है।

इस बार शायद ही किसी नेता ने जनता की रोजमर्रा की समस्याओं का जिक्र किया। जनता के पाले से जहां-कहीं ऐसे मसले उठते भी हैं, तो उनको बड़े आराम से समझा दिया जाता है कि अभी देश को देखना है। जनता को विकास या समस्याओं के निराकरण का यह चरण कोई नहीं समझा पा रहा है- स्वयं, परिवार, गांव, समाज, राज्य और फिर देश। यह क्रम पूरी तरह टूटा हुआ है। यह भी सही बात है कि चुनाव लोकसभा का है और देश की सरकार बननी है। मगर राष्टï्रीय मुद्दे भी कहां हैं? जनता की धारणा है कि मुद्दा है ही नहीं। खैर, विकास या बेहतरी का यह चरण जहां टूटता दिखता है, मालिक जनता को बिदकाता हुआ दिखता है, नेता, जाति व धर्म या ऐसे दूसरे सीमेंट से इसकी मरम्मत कर देते हैं। नोटा की पृष्ठभूमि में यह सब कब तक चलेगा? नोटा, स्वाभाविक तौर पर भी अपना अगला चरण तो तलाशेगा?

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