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नेता की जात

फंटूश
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मैं अभी तक यही जानता, समझता था कि नेता की कोई जात नहीं होती है। वह किसी जात का नहीं होता है। नेता की बस एक ही जात होती है, वह है-नेता। नेता, देश का होता है। नेता, समाज का होता है। नेता, जात का नहीं होता है। अगर होता है, तो कहता नहीं है। बोलता नहीं है। नेता का धर्म-ईमान नेतागिरी होती है। लेकिन अब नेताओं ने ही बताया है कि नेता भी आदमी की तरह राजपूत, भूमिहार, ब्राह्मïण, कायस्थ, कोइरी, कुर्मी, यादव, दलित, महादलित होता है।

अभी जदयू और भाजपा के नेता इस बात पर भिड़े रहे हैं कि नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल में बिहार से भूमिहार जात का कोई नहीं है। कानून के प्रकांड विद्वान और अपने शिक्षा मंत्री पीके शाही की जुबान से यह बात निकली और बड़ी तेजी से परस गई। जदयू के कई बड़े नेताओं ने बारी-बारी से इसे अपनी-अपनी जुबान दी। यह संदेश गांव-गांव फैला दिया गया है। राजीव रंजन सिंह, प्रो. रामकिशोर सिंह, नवल शर्मा, नीरज कुमार …, सबने मिलकर अपनी इस मर्मांतक पीड़ा के जरिए अपनी जात बताई है। नई पीढ़ी, बड़े हो रहे बच्चे भी उनकी जात जान गए हैं। अब भला पार्टी विथ डिफरेंट भाजपा कैसे चुप रहती? उसने भी अपने भूमिहार कैम्प के नेताओं को जदयू के भूमिहार कैम्प द्वारा तैयार किए गए मोर्चे पर खड़ा कर दिया, डटा दिया। सुरेश शर्मा, सुधीर शर्मा, उषा विद्यार्थी, विजय कुमार सिन्हा …, सबकी जात गांव- गांव पसर गई है। इनके इस नए ज्ञान से संपूर्ण मानव जाति लाभान्वित हो रही है। इन्होंने एक और नेता की जात बता दी है। इनको सुनिए- गाजीपुर के मनोज सिन्हा, जो रेल राज्य मंत्री बने हैं, भूमिहार हैं। नेताओं ने पब्लिक को यह भी बताया कि मनोज सिन्हा की ससुराल बिहार में है। चूंकि बिहार में अतिथि देवो भव: की सनातन परंपरा रही है, इसलिए मनोज सिन्हा को बिहार का ही माना जाए। वाह, क्या बात है?

मेरी राय में यह सनातन परंपरा ठीक उसी तरह की है, जैसे जात की सनातनी व्यवस्था है। एक सनातन परंपरा से दूसरी सनातनी व्यवस्था को काटने का यह अद्वितीय उदाहरण है। वाह-वाह। मजा आ गया।

खैर, भूमिहार जात से पहले नेता लोग महादलित जात पर लड़े। यह लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है। इसकी जोरदार शुरुआत तब  से हुई, जब जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया गया। बहुत बड़ी बात है। जहां मामूली पद या फायदे के लिए लोग जान देने-लेने पर उतारू हैं, वहां एक झटके में मुख्यमंत्री का पद छोड़ देना मामूली हिम्मत की बात नहीं है। नीतीश कुमार ने यह हिम्मत दिखायी। अभी की दौर में भी, जब समाज या सिस्टम का मिजाज सामंती भाव या अंदाज से मुक्त नहीं हो पाया है, जीतनराम को कुर्सी सौंपने के कई-कई मायने हैं। निश्चित रूप से इसके राजनीतिक निहितार्थ भी हैं। लेकिन यह सबकुछ इस रूप में प्रचारित किया गया कि यह एक बड़ा मजाक भर है। नई राजनीतिक नौटंकी है। जीतनराम को खड़ाऊ रखकर शासन चलाने वाला, रिमोट से कंट्रोल होने वाला, कठपुतली, बेहद कमजोर और न जाने क्या-क्या कहा गया? यह सब क्या है? भाजपा नेताओं का यह कहा मान लिया जाए कि महादलित जात का एक बुजुर्ग और बेहद अनुभवी नेता आज भी बस इन्हीं हैसियत में है, जैसा कि वो कह रहे हैं? या जीतनराम की ये बातें मानी जाएं कि कोई महादलित को कमजोर समझने की गलती नहीं करे? यह नेता, उसकी जात की नई लीला है। यहां नेता और उसकी जात से जुड़ी एक और अजीब बात दिखी। भाजपा, नरेंद्र मोदी के अति पिछड़ा होने को अपना गौरव बनाए हुए है। लेकिन जदयू का अतिपिछड़ा …, वह कमजोर मान लिया जाएगा? क्यों? कैसे? बहरहाल, नेता की जात का नया ज्ञान यही कहता है कि नेता की जात, उसका गुण, उसका असर, परिणाम …, यानी सबकुछ पार्टी या इसकी लाइन से तय होता है। अहा, कितना सुंदर ज्ञान है। बड़ा दिलचस्प है।

खैर, जदयू के प्रो.रामकिशोर सिंह ने महादलित जात पर छिड़ी लड़ाई को यूं आगे बढ़ाया। उन्होंने दो बातें कहीं। एक-सुशील कुमार मोदी पहले अपनी कुर्सी, यानी भाजपा विधानमंडल दल के नेता पद पर किसी महादलित को बिठाएं, तब नीतीश कुमार के खिलाफ बोलें। इसलिए कि नीतीश कुमार ने जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बनाकर महान काम किया है। रामकिशोर बाबू की जुबान से निकले इस महानता के मर्म को समझा जा सकता है। यह उनकी अपनी बात है।  राजनीति में इतना चलता है। लेकिन, जरा उनकी दूसरी बात पर गौर कीजिए। उनके अनुसार जीतनराम मांझी के शपथ ग्रहण समारोह में भाग नहीं लेकर सुशील मोदी ने महादलित का अपमान किया है। यह नेता की जात वाला एंगल है।

आदमी, उसकी जाति और बहुदलीय प्रणाली वाले उस संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में जाति, राजनीति से बेशक अलग नहीं हो सकती, जब लोकतंत्र, भीड़तंत्र के रूप में परिलक्षित या परिभाषित होता रहा है। बिहार का संदर्भ तो ऐसे ढेरों आख्यान रखे है, जिसका कमोबेश हर स्तर जाति और राजनीति की एक-दूसरे के लिए पूरक वाली स्थिति को वाजिब तक बताता है। वोट हमारा, राज तुम्हारा नहीं चलेगा-नहीं चलेगा-यह नारा यूं ही नहीं बन गया। अंध जातीयता के लिए पढ़े -लिखे लोग ज्यादा बदनाम रहे हैं। टिकट, मंत्री पद, संगठन का पद …, यानी सक्रिय राजनीति के तमाम मामलों में जातीय तुष्टिï या अपेक्षित संतुलन का सहारा लिया जाता है। यह सब स्वाभाविक सी मान ली गई बात है। मगर यह बात पहली बार सामने आई है, जब नेताओं ने अपनी जात बताई है।

मैं देख रहा हूं-नेता, जातीयता को और उत्कट भाव में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव तक खींच कर ले जाना चाहते हैं। उनके सामने अभी-अभी गुजरे लोकसभा चुनाव का उदाहरण है, जिसमें जातीय कार्ड पूरी तरह कामयाब रहा। इसी दौरान कौम आधारित गोलबंदी अंजाम दी गई। जात-कौम की बिसात पर पब्लिक बड़े आराम से नाच गई। पहले सब घरों में मायूस बैठे थे, बात ऐसी करते थे मानों इस राजनीतिक व्यवस्था से आजिज आ गए हों। कुछ नोटा को ताकतवर बनाने की बात कहते थे। नेताओं ने कार्ड चल दिया, चाल कामयाब रही, पब्लिक झूमकर घरों से बूथ के लिए निकल पड़ी। मेरी समझ से इस तरीके में नेताओं को बड़ा फायदा है। यह बड़ा सहूलियत वाला है। आजमाया हुआ है। नेताओं को कुछ खास नहीं करना पड़ता है। एक जमात चार्ज होती है, इसकी प्रतिक्रिया में दूसरी-तीसरी…, पूरा चेन बन जाता है। नेता के सारे कारनामे पूरी तरह छुप जाते हैं। पब्लिक तो इतनी महान है कि जात के नाम पर अपनी जात के अपराधी को भी माफ कर देती है। चलिए, बहुत हुआ। नेता की जात पता चल गई। अब सरकार का धर्म तलाशें।

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