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पुत्र का कुपुत्र होना और मां …

फंटूश
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मुझे याद नहीं है कि कब यह गीत मेरी जेहन में उतरा था-मांगिला तोसे वरदान हे गंगा मईया, मांगिला तोसे वरदान …; राम जइसन बेटा दीहऽऽ, बेटी सीता समान; मईयाऽ …, हे गंगा मईया-मईयाऽऽ …, हे गंगा मईयाऽऽ। यह मां (गंगा) से राम और सीता जैसी संतानों की याचना है। गंगा से आदमी के संबंध व सरोकार का उत्कट प्रदर्शन है। मैं समझता हूं कि मां (गंगा) तो अपने स्थापित व घोषित भाव में है मगर बेटा (आदमी) …?

मैं, गंगा संसद में जगदानंद को सुन रहा था। वे बता रहे थे कि अपने महान भारत का संविधान नदियों को राज्य सूची में रखे है और खनिज या खदान का मसला केंद्र सूची में है। यानी जो स्थिर है, निहायत स्थानीय है, वह राष्ट्रीय विषय है और जो  जीवनदायिनी भाव में चलायमान है, उसे राज्यों के जिम्मे छोड़ दिया गया है।

हद है। गजब है। मुझे शासन की यह विडंबना या दोहरापन आदमी में भी नजर आता है। आदमी पहले गंगा को पूजता है, फिर उसे गंदा करता है, फिर पूजता है-मनौती मानता है और घर चला आता है। यह उस आदमी की दास्तान है, जो गंगा को मां मानने या कहने से भी नहीं हिचकता है। मेरी राय में आदमी के इस दोहरे मिजाज की पृष्ठभूमि में सरकार या संविधान की उक्त व्यवस्था मुनासिब है। इसलिए भी कि सरकार, आदमी की होती है, वही इसे बनाता है, चलाता है। आदमी ने राष्ट्रीय जल नीति तो बनायी लेकिन इसमें जल की उपयोगिता, प्रबंधन एवं सुरक्षा की चर्चा नहीं की।

 

मैं, आरके सिन्हा के इस शोधपरक अनुभव पर बहुत चौका हुआ हूं कि कुछ जीव-जंतु बस गंगा एवं उसकी सहायक नदियों में ही पाए जाते हैं। इनमें कछुए की दो प्रजाति भी है। ये मुर्दा खाते हैं और गंगा को साफ रखते हैं। किंतु आदमी तो कछुआ खा रहा है। इसकी तस्करी बड़ी फायदेमंद मान ली गई है। हिलसा मछली समुद्र में रहती है। वह अंडा देने मीठे पानी में आती है। गंगा में पहले कानपुर तक हिलसा मिलती थी। आदमी ने आदमी के फायदे या सुविधा की तर्क पर फरक्का बराज बना दिया। हिलसा मिलनी बंद सी हो गई है। आदमी ने सोंस (डाल्फिन) को वन प्राणि अधिनियम-1972 के तहत शिड्यूल वन में रखा है। यानी बाघ की हत्या के लिए जो सजा तय है, वही सजा सोंस का शिकार करने वालों के लिए है। बड़ी अच्छी बात है। मिलनी ही चाहिए। गंगा को साफ रखने में सोंस का बड़ा योगदान है। लेकिन जो आदमी गंगा को नाला की शक्ल दिए हुए है, उसके लिए सजा …? वाह रे आदमी। उसका कानून, उसका दोहरापन।

मैंने गंगा संसद में अनुभव किया कि वाकई गंगा, आदमी की आस्था और तकनीक के बीच चुपचाप खड़ी है। दिनेश मिश्र रोचक अंदाज में बता रहे थे कि आदमी अपने फायदे के हिसाब से गंगा को किन-किन नजरों से देखता है? अंग्रेजों ने दामोदर नदी को बंगाल का और कोसी नदी को बिहार का शोक इसलिए कहा क्योंकि इन दोनों नदियों से उनकी व्यावसायिक अपेक्षा पूरी नहीं हुई। नदियों को बांधने के कारण अकाल भी पडऩे लगे। खैर, अंग्रेज तो चले गए। हम, जो गंगा को मां मानते हैं, क्या कर रहे हैं? 1980 से गंगा को निर्मल एवं अविरल बनाने का प्रयास हो रहा है। क्या हुआ? पटना हाईकोर्ट के न्यायाधीश अजय त्रिपाठी के इस सवाल का ईमानदार जवाब किसी के पास है-बिस्वास बोर्ड का क्या हुआ? यह कब व क्यों खत्म हुआ? वाकई, पटना का सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट कारगर है? उनकी इस आशंका का समाधान कोई करेगा कि ऐसा फिर हो सकता है। गंगा की सफाई के नाम पर पहले ही 20,000 करोड़ रुपये पानी में बह चुके हैं। गंगा तो साफ नहीं हुई, हां उन्हें जरूर लाभ हुआ जो सफाई में लगे थे। सबकुछ ठीकठाक रहने की गारंटी कोई देगा? अबकी केंद्र सरकार ने खुद को गंगा पर केंद्रित किया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इसके सुपरिणाम निकलेंगे।

इस बारे में अब तक का अनुभव बड़ा खराब रहा है। अगर सफाई के मोर्चे पर शासन कुछ कहता-करता भी है, तो उसके शब्द इस प्रकार होते हैं। आचार्य किशोर कुणाल कह रहे थे-मैं प्रति सोमवार को गंगा में स्नान करता हूं। गंगा स्नान के दौरान मैं एक घंटे पानी में रहता हूं। शिव एवं रुद्राक्ष के संबंध में मंगलोच्चार करता हूं लेकिन आजतक मुझे कोई चर्मरोग नहीं हुआ है। … कुछ दिनों पहले एक मंत्री का बयान पढ़ा जिसमें कहा गया कि गंगा में जो व्यक्ति साबुन लगाकर स्नान करेगा, उसे छह माह जेल की सजा होगी। यह हास्यास्पद है। साबुन लगाकर नहाने से गंगा मैली नहीं होती है। सही में आदमी ऐसे ही सतही उपायों से खुद को तारने में लगा है।

मुझे अनिल प्रकाश की ये बातें सुनकर आश्चर्य हुआ कि साठ के दशक में राम मनोहर लोहिया ने सोशलिस्ट पार्टी के मेनिफिस्टो में गंगा को प्रदूषण मुक्त करने का मसला उठाया था। सभी चाहते हैं कि गंगा अविरल बहे और जगह-जगह उसे बांधा भी जा रहा है। जी हां, यही है आदमी? निलय उपाध्याय ने मुगल व अंग्रेजों से लेकर आजाद भारत के आदमी के कारनामों को बताया। कहा-कानपुर में 23 नाले गंगा में गिरते हैं। इससे हर रोज तीन करोड़ लीटर गंदा पानी गंगा में जाता है। शर्मनाक।

मेरी राय में गंगा संसद की सबसे बड़ी नसीहत यही रही कि आदमी ने गंगा को गंगा नहीं रहने दिया है, लिहाजा उसे ही इसे गंगा बनाना है। अपनी खातिर। अपनी भावी पीढिय़ों के लिए। आदमी अपना यह परम कर्तव्य निभाएगा या इस धारणा का किरदार बना रहेगा कि पुत्र, कुपुत्र हो सकता है लेकिन माता कुमाता नहीं होती है। हम गंगा को मां मानते हैं।

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