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आदमी का डर्टी पिक्चर …

फंटूश
फंटूश
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अब मैंने भी मान लिया है कि अपने महान भारत का आदमी परम स्वतंत्र है। वह कुछ भी कर सकता है। यहां के आदमी को कोई भी आदमी कुछ भी करने से नहीं रोक सकता है। एक आदमी कानून बनाता है। दूसरा आदमी उसको मजे से तोड़ता है। आदमी ही पुलिस है। आदमी अपराधी है। आदमी नेता है। आदमी मंत्री है। आदमी वकील है। आदमी जज है।

मैं, एक आदमी के नाते यही समझता हूं कि आदमी ने अपने हिसाब से भगवान को तय किया हुआ है। उनका समय, दिन, महीना निर्धारित किया हुआ है। आजकल सावन है, इसलिए आदमी, भगवान शिव की आराधना में है। उनकी पूजा कर रहा है। उनसे मनौती मान रहा है। हिन्दू धर्मग्रंथों में आदमी को शिव का अंश माना गया है। शिव आज भी गुरु हैं, इस  स्थापित धारणा को आदमी ने मठ-मंदिरों के अलावा ट्रक-बसों पर भी लिख दिया है। आदमी के कर्मकांड हैं। इसकी बड़ी लम्बी दास्तान है।

मैं देख रहा हूं कि सावन, आदमी के कई दूसरे गुणों को भी दिखा रहा है। मुझे कई मामलों में आदमी, भगवान से बड़ा दिख रहा है। वाकई, जब आदमी, भगवान को नचाने लगे, तो उसकी दुनिया और उसकी हैसियत का अंदाज किया जा सकता है। मेरी राय में सही में आदमी बहुत आगे बढ़ गया है। वह उस भगवान यानी शिव को सपरिवार नचा दे रहा है, जिनके बारे में कहा जाता है कि वे बस तांडव करते हैं और तब सृष्टि खत्म हो जाती है। लेकिन अपना आदमी तो शिव से मजे का डांस करा रहा है। उनके साथ माता पार्वती, गणेश और कार्तिकेय भी ठुमका लगाते हैं।

मैं देख रहा हूं-आदमी ने शिव या शिव परिवार को म्यूजिक मार्केट में बाकायदा लांच कर दिया है। शिव के इस मार्केट पुराण का निर्माता, निर्देशक, संगीतकार, गीतकार …, यानी सबकुछ आदमी है। आपने शिव को सपरिवार नाचते-झूमते देखा है? आठ-दस रुपये खर्च कीजिए, बस इतनी ही कीमत वाली सीडी आपको बता देगी कि आदमी की दुनिया में भगवान किस हैसियत को जी रहे हैं?

मैं तो इसे अपसंस्कृति की पराकाष्ठा मानता हूं। इससे भी बड़ी बात है यह कि आदमी के इस निहायत घिनौने कारनामे को रोकने वाला कोई आदमी नहीं है? हां, भगवान को नाचते हुए देखने वाले आदमी ढेर सारे हैं। गजब की विडंबना है। सुल्तानगंज से बाबाधाम की घोर कष्टकारी कांवर यात्रा के हिस्सेदार भी भगवान के नाच-गानों को बड़ी तन्मयता से सुनते हैं। यह केबुल के माध्यम से हर उस घर के ड्राइंगरूम तक पहुंचा हुआ है, जिसके मालिकान अक्सर महामृत्युंजय जाप या रूद्राभिषेक कराते रहते हैं। हद है। गजब है। 

बेशक, भगवान की आराधना कई रूपों में होती है। इसमें संगीत के आधुनिक उपकरणों, माध्यमों या तरीकों का उपयोग वर्जित नहीं है। मगर शिव परिवार के नाच-गानों को दिखाने वाली सीडी में कोई भी गाना, भजन-गीत के करीब भी नहीं है। मैंने देखा, सुना है-ऐसे सभी गाने चलताऊ फिल्मी गानों की तर्ज पर हैं। इसमें डर्टी पिक्चर से लेकर धूम थ्री व रागिनी एमएमएस तक के गाने शामिल हैं।

मैं मानता हूं कि अगर इन नाच-गानों में शिव, पार्वती, गणेश या कार्तिकेय बने पात्रों को बच्चे देख लें, तो बड़े होने पर इनकी पूजा करना छोड़ दें। कहां भगवान शिव और कहां उनकी पात्र को निभाता, डगमगाता सा दुबला-पतला युवक। धार्मिक ग्रंथों में दर्ज शिव का स्वरूप अचानक पूरी तरह ध्वस्त हो जाता है। बड़ी पीड़ा होती है।

ये गाने गवाह हैं, बताते हैं कि भोले बाबा के पास सावन में एक ही काम है-भांग खाना और इसके नशे में टुन्न रहना। इसी तरह माता पार्वती के जिम्मे सिर्फ भांग पिसने का काम होता है। वीडियो वाले इन गानों को देखकर लगता है कि गणेश व कार्तिकेय भी भांग पी लेते हैं। सभी डगमगाते रहते हैं। सभी ऐसे नाचते हैं, जैसे किसी गांव के ड्रामे में रोल मिला हो। भगवान का ऐसा स्वरूप, चित्रण …?

मैंने देखा है-कैलाश, अजीब स्वरूप में सामने आता है। पूरा शिव परिवार यहां नशे की हालत में विचरते दिखाया जाता है। गाड़ी धीरे चलाब सैंया, बाबा नगरी बड़ी दूर बा …, जै-जै भोलेनाथ पीअ जीभर के भांग, पार्वती मैया घोटत भांग …, हमसे भंगिया ना पिसाई ऐ गणेश के पापा …। ये हो क्या रहा है भाई?

मैंने कुछ दिन पहले इस बारे में कला, संस्कृति व युवा मामलों के मंत्री विनय बिहारी को बताया था। आग्रह किया था कि चूंकि यह आपके विभाग का मामला है, बहुत गंदा लगता है, धार्मिक भावना पर चोट भी है, कला के नाम पर कम से कम इसकी इजाजत नहीं दी जा सकती है, लिहाजा इसको रोकने के लिए कुछ किया जाना  चाहिए। मगर शायद यह मौका मुनासिब नहीं था। मंत्री जी ने उसी दिन बच्चों के मोबाइल के इस्तेमाल के बारे में विवादास्पद बयान दिया था। वे इसी के बारे में लगातार बोलते गए। मैंने किसी तरह उनको इस लाइन पर फिर से लाया, तो वे भोजपुरी को कलंकित करने वालों पर शुरू हो गए। यहां तक बोल गए कि भोजपुरी फिल्म या गाने तो मान लीजिए कि मिनी ब्लू फिल्म के पर्याय बना दिए गए हैं। मुझे बड़ा अजीब लगा। सही में आदमी की इस बड़ी दुनिया में अब यही पूछने का मन करता है कि अरे, कोई है, जो अपसंस्कृति के इस घिनौने स्वरूप को रोक सके? मुझे किसी कोने से कोई सार्थक आवाज सुनाई नहीं दे रही है।

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