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सेंटीमेंट बचा है जी

फंटूश
फंटूश
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कोई भी भाव-विभोर हो जाएगा। मैं भी हूं। मैंने आदमी को बचाने की ऐसी फुर्ती पहली बार देखी है। केंद्र व राज्य सरकार एक हो गए हैं। एक का  कहना खत्म भी नहीं होता कि दूसरा उसे पूरा कर दे रहा है। राहत, बचाव के इंतजाम में दोनों सरकारों के बीच बाजी लगी हुई है। दिल्ली वाले बिहार से बात कर रहे हैं। सबकुछ, सब कोई ऑनलाइन हैं। कुछ हॉटलाइन पर हैं। वीडियो कांफ्रेंसिंग हो रही है। बिहार के जल संसाधन मंत्री विजय कुमार चौधरी भी तबाही टालने को ईश्वर से प्रार्थना कर रहे हैं और भाजपा विधानमंडल दल के नेता सुशील कुमार मोदी भी। मैराथन बैठकें हो रहीं हैं। हवाई जहाज तैयार हैं। हेलीकॉप्टर उड़ रहे हैं। मोटरबोट चल रही है। सेना, एनडीआरएफ, वायुसेना, पुलिस, होमगार्ड, चौकीदार, दफादार …, मुझे लगता है सबको हाई एलर्ट देखकर बाढ़ भी डर गई होगी।

मेरी पत्नी ने मुझसे कहा-सेंटीमेंट बचा है जी। वह इन तमाम नियोजन या उपक्रम के हवाले अपनी बात को मजबूत कर रही थी। अफसरों की बैठकों की तरह ताबड़तोड़ तर्क पर तर्क दिए जा रही थी। वह अंत में मुझसे यह मनवा कर ही मानी कि सेंटीमेंट बचा है जी।

बेशक, ऐसे मामलों या मौकों पर इनकारी की स्थिति सीधे हिम्मत से जुड़ी बात होती है। मेरे मान जाने में इस स्थापित स्थिति का बड़ा योगदान रहा, मगर मैं इसलिए भी मान गया कि मैं, कोसी क्षेत्र की तबाही का गवाह रहा हूं। छह साल पहले कुसहा में बांध को तोड़कर कोसी की धार सीधे आबादी की तरफ मुड़ गई थी। मैं इसलिए मान गया कि तब मैंने देखा था कि कैसे आदमी (रहनुमा) ने इसे प्रकृति का कहर बताकर अपना चेहरा बचाने की कोशिश की? और इसलिए भी माना कि चूंकि मैंने देखा कि कैसे इस मामले में आदमी पूरी तरह बेनकाब हुआ? जस्टिस राजेश बालिया कमेटी की रिपोर्ट में आदमियों के लिए आदर्श व्यवस्था का जिम्मा रखने वाले आदमी के कारनामों की खासी चर्चा है। यह बताती है कि जिम्मेदार आदमी पहले आदमियों को मारने का नियोजन करता है, फिर उसे बचाने का उपक्रम करता है। 

मेरी राय में कुसहा त्रासदी के बाद आदमी का कारनामा कहीं ज्यादा भयावह अंदाज में सामने आया। उसकी जिम्मेदारियां, उसका कर्तव्य अब भी कठघरे में है। त्रासदी अगस्त 2008 में हुई थी। उस समय यह क्षेत्र दानी और मानवीय कहलाने का स्थल या माध्यम बन गया था। दुनिया भर के आदमी जुटे थे। कोई कपड़ा बांटता था। ढेर सारे आदमियों ने खाने के लंगर चलवाए। कुछ ने गांवों को गोद लेने की बात कही, तो कई बच्चों को पढ़ाने व बेटियों के ब्याह में मदद करने का जिम्मा उठाया। रहनुमाओं ने दावा किया था कि कोसी क्षेत्र पहले से भी सुंदर व बेहतर बसेगा। खेती, पानी में सहयोग देने की बात हुई थी। बिहार सरकार में बैठने वाले आदमियों ने अपनी औकात के अनुसार जितना संभव था, किया। तब के प्रधानमंत्री जी आए थे। कोसी की तबाही को राष्ट्रीय आपदा घोषित किया। मैं सेंटीमेंट बचा है वाली बात इसलिए भी मानी, चूंकि मैंने देखा है कि कैसे हजार करोड़ रुपये देकर निश्चिंत हो जाया जा सकता है? कोसी पुनर्वास पैकेज दिल्ली में पड़ा हुआ है। मैंने देखा कि सभी आदमी अचानक लापता हो गए। कहां गए? अब कोई कोसी में जाता भी है क्या, मैंने इसलिए भी सेंटीमेंट के जिंदा रहने की बात मानी। और इस कारण भी कि ढेर सारे एलान हुए; योजनाएं बनीं लेकिन मेरा मानना है कि कोसी क्षेत्र, आज भी आदमी और उसकी आदमीयत को नंगा कर देने की हैसियत में है। यह अब तक नहीं बस पाया है।

मैं देख रहा हूं-तीन दिन से इस इलाके में फिर जान बचाने की भगदड़ है। लोग अपने साथ अपने जानवरों को भी ले जा रहे हैं। घर-बार सब छूटा हुआ है। फिर से कैम्प या कथित दानी आदमी के रहमोकरम पर जिंदगी कटने वाली नौबत। आदमी की यह नियति आखिर कब तक रहेगी? इसके लिए कौन कसूरवार है? जस्टिस राजेश बालिया की अध्यक्षता वाले आयोग की जांच रिपोर्ट पर कार्रवाई को राज्य सरकार ने दो-दो कमेटियां बना दी हैं। मैं नहीं जानता की इसकी रिपोर्ट आने में कितना साल लगेगा? वालिया साहब ने तो छह साल लगा दिए। लेकिन कोसी, उसका कहर हर साल आ जाता है। इसकी तारीख तय है। मेरी राय में आदमी, आदमी के लिए तारीख पर तारीख तय कर रहा है। बिहार जैसे बहुत कम स्थान होंगे, जहां कहर की बाकायदा घोषित तारीख है। कोसी में हाईडैम का क्या हुआ? एक बार फिर यह सवाल जिंदा हुआ है। इसकी तारीखों की भी कमी नहीं है। मैंने इसलिए भी सेंटीमेंट वाली बात मानी है।

चलिए, जो सीन है, लगता है कुछ अच्छा हो जाएगा। होना भी चाहिए। आदमी को आदमी समझा जाना चाहिए। उम्मीद की जानी चाहिए कि आदमी की जरूरतों की उपलब्धता पर रहनुमाओं की यही फुर्ती कायम रहेगी। ऐसा नियोजन होगा, जो ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न होने देगा। कोसी क्षेत्र नए सिरे से बसेगा। ऐसा होगा? फिलहाल इसी से काम चलाइए कि सेंटीमेंट बचा है जी।

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