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सच बोलना मना है

फंटूश
फंटूश
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मैं नेताओं की नई लीला देख रहा हूं। नेता, सच तो नहीं ही बोलते हैं; अब वे अपनी बिरादरी में सच बोलने वाले बचे-खुचे नेताओं को भी सच बोलने से मना करने लगे हैं।

मेरे परिचित एक बड़े नेताजी आजकल यह गारंटी बांट रहे हैं कि मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी में जब-तब उभर जा रहा सच, सरकार को तबाह कर देगा। बड़ी बदनामी हो रही है। मुख्यमंत्री की जुबान से इस तरह से सच नहीं निकलना चाहिए, जैसा जीतन राम बोल देते हैं। मैं, उस दिन कला संस्कृति व युवा मामलों के मंत्री विनय बिहारी का खेल के बारे में सच सुन रहा था। नेताओं ने विनय को ऐसा डराया हुआ है कि अब वे सच बोलने से परहेज करने लगे, तो आश्चर्य नहीं है। हद है। मैं तय नहीं कर पा रहा हूं कि सच को रोकने की यह कोशिश क्या कहलाएगी? सबको कहां ले जाएगी?

दरअसल, नेताओं ने अपने लिए कुछ तरीके तय कर रखे हैं-सोचो कुछ, बोलो कुछ और करो कुछ और। इस पूरी राजनीतिक प्रक्रिया में सच बोलने या इसे कबूलने की मनाही है। अगर नेता जी सरकार में हैं, तो उनको कहना ही है कि मेरी सरकार दुनिया की सबसे अच्छी सरकार है। अगर विपक्ष में हैं, तो सरकार को पानी पी-पीकर कोसना उनका परम धर्म है। इस दोनों काम से विमुख होने पर उनकी फजीहत तय है।

मैं देख रहा हूं कि सच पर भी कैसे बड़ा बवाल हो जा रहा है। मकसद यही कि चुप रहो, बोलना है, तो झूठ ही बोलो। इतना और ऐसा हंगामा हो रहा है कि सच बोलने वाला डर जा रहा है। यानी, उसे पूरी तरह बनावटी होने की पूरी छूट है। बनावटी बात बोलने में उसे कोई बोलता, टोकता नहीं है।

मेरी राय में अपने महान भारत का यह सबसे बड़ा संकट है। हम हर चीज को बेहद सामान्य भाव में लेते हैं। हमारा हर प्रयास बस सजावटी या दिखावटी होता है। काम से ज्यादा उसका प्रचार होता है। हम अपने हिसाब से जहां तक संभव है, शांति बनाए रखने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। वस्तुत: यह यथास्थिति की मनोवृत्ति है। यहां शांति से सबकुछ किया जा सकता है। परीक्षा में चोरी कीजिए मगर शांति से। पुल, सड़क, इंदिरा आवास, वृद्धावस्था पेंशन, मध्याह्न भोजन पचा जाइए शांति से।

चलिए, इस सच को भी देखिए। शिवराज पाटिल ने भी किताब लिख दी है। लिखनी ही थी। यह उनकी आत्मकथा है। उन्होंने इसमें मुंबई पर आतंकी हमले का जिक्र नहीं किया है। यह जिक्र होनी चाहिए थी। तब वे गृह मंत्री थे। उन्होंने सच को छुपाने में खुली ईमानदारी दिखाई है। अभी नटवर सिंह, विनोद राय …, कई बड़े लोगों की किताबें आईं हैं। बड़ी चर्चा है। बड़े-बड़े लोग कठघरे में हैं। होने भी चाहिए। लेकिन इसी के साथ यह बात भी आ रही है कि अगर इन महान व क्रांतिकारी लेखकों ने समय रहते, यानी पद पर रहते हुए ऐसी आवाजें उठाई होतीं, तो नजारा कुछ और होता। तो क्या ये लोग किताब लिखने का प्लॉट तैयार करते हैं?

वाकई, यह कौन सा तरीका हुआ कि पहले व्यवस्था का हिस्सेदार बनिए, उसे मजे में भोगिए, आगे बढ़ाइए और फिर जिम्मेदारी से मुक्त होने पर फौरन एक किताब लिखकर उसे भरपूर कोसिये? यह व्यवस्था के पाप से खुद को अपने हिसाब से किनारे करने की कोशिश से ज्यादा कुछ है? ऐसे में गड़बड़ी रुकेगी? और इस स्थापित सी पृष्ठभूमि में जब कोई जीतन राम या विनय बिहारी सच को खुलेआम करता है …, तो क्या मान ही लिया जाए कि सच बोलना मना है; कि नेता या आदर्श व्यवस्था के जिम्मेदार झूठ की ही खेती करते हैं?

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