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यही है मरकर भी जिंदा रहना

फंटूश
फंटूश
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हेमंत करकरे याद हैं न …! वही 26/11 वाले। जब कसाब और उसकी राक्षसी टोली ने मुंबई पर हमला बोला था; करकरे, मुंबई  एटीएस के चीफ थे। कर्तव्य निर्वहन में शहीद हो गए।
खैर, इसी पृष्ठभूमि में मैं दूसरी बात कह रहा हूं।
चौबीस घंटे पहले यानी मंगलवार को हेमंत की पत्नी कविता करकरे, इस दुनिया को छोड़ गईं। उनका निधन हो गया।
कविता ने मरकर भी चार लोगों को जिंदगी दी है। जैसे हेमंत और उनके जैसों ने सैकड़ों, हजारों, लाखों लोगों को बचाया हुआ है; जिनके दम पर यह देश जिंदा है। बहरहाल, कविता की दो किडनी दो लोगों को मिली है। लीवर, तीसरे आदमी को मिला। और आंखें चौथे आदमी को।
मैं नहीं जानता कि करकरे किस जाति के थे? जाहिर तौर उनकी पत्नी कविता करकरे की जाति भी मुझे नहीं मालूम है।
मैं यह भी नहीं जानता कि कविता की किडनी, लीवर और आंखें जिनको-जिनको मिली हैं, वो किन-किन जातियों के हैं? हां, अपने नेताओं की टोली यह शोध जरूर कर सकती है कि राजपूत की किडनी का कुर्मी की बॉडी में जाने पर क्या री-एक्शन होता है? यह बिल्कुल फिट होती है या नहीं? इसका क्या-क्या नफा- नुकसान है? हिन्दू की आंखों से मुसलमान देख सकता है कि नहीं? फिर उसे जो दिखता है, वह कैसा होता है? क्या हर जाति का लीवर अलग-अलग होता है? दलित और ब्राह्मण के लीवर में क्या फर्क होता है? यह एक का दूसरे में फिट हो सकता है कि नहीं? इस लाइन पर यह शोध बहुत आगे बढ़ाया जा सकता है। बड़ी लम्बी दास्तान है। चर्चा फिर कभी।
फिलहाल, कविता और पूरे करकरे परिवार को इस बात के लिए सलाम कि उन्होंने इस फटाफट और बेहद व्यक्तिवादी दौर में भी इस धारणा को बड़ी मजबूती से स्थापित किया है कि मरकर भी जिंदा रहा जा सकता है। मरकर जिंदा रहना, इसी को कहते हैं। एक बात और। अपना समाज-देश, कविता-हेमंत जैसे लोगों के बूते ही चल रहा है। नवरात्र में मातृशक्ति ने फिर खुद को स्थापित किया है।

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