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आखिरकार बिहार विधानमंडल के पास बटुकेश्वर दत्त की आदमकद प्रतिमा लगाने को निर्माण स्थल का शिलान्यास हो गया। प्रतिमा बन गई है। यह अगले महीने स्थापित भी हो जाएगी।
मैं, इसे एक बड़े पाप का धुलना मानता हूं। वह पाप, जो पूरे बिहार ने मिलकर किया था। बिहार, इस पाप को बहुत दिन से ढो रहा था। यह बटुकेश्वर को पूरी तरह भुला देने का पाप था। यह एक वीर सुपुत्र को अपने ही प्रदेश में परिचय के स्तर पर राजधानी की उस मामूली सी गली में सिमटा देने का पाप था, जिसके मुहाने पर बसने वाला भी शायद ही बटुकेश्वर को जानता था। मुझे, कुछ दिन पहले जक्कनपुर (पटना) में बटुकेश्वर दत्त का घर तलाशते वक्त अहसास हुआ था कि इतिहास मरता है; इतिहास दफन भी होता है? यह इतिहास को खुलेआम मारने का पाप था। इस पाप के साइड इफेक्ट्स भी हैं।
मैं समझता हूं कि नई पीढ़ी तो बटुकेश्वर के नाम से ही चौंक जाएगी। वह सवाल पूछ सकती है कि ये कौन हैं भाई? क्या बेचते थे? कितने यह बताने की स्थिति में हैं कि अरे, वही बटुकेश्वर उर्फ बीके दत्त, उर्फ बट्टू, उर्फ मोहन …, जिन्होंने भगत सिंह के साथ मिलकर अंग्रेजों की एसेंबली में बम फेंका था। जिस कांड ने पूरी दुनिया को हिला दिया था। जिसको भगत सिंह की मां विद्यावती देवी अपना दूसरा बेटा मानती थीं। जिसका अंतिम संस्कार हुसैनीवाला (फिरोजपुर) में उसी स्थान पर राजकीय सम्मान के साथ हुआ, जहां भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव के स्मारक हैं। और यह भी कि वही बटुकेश्वर, जब पूरा देश भगत सिंह का शताब्दी वर्ष मनाने में मशगूल था और वे बस डाकघर का पता रहे। वही बटुकेश्वर, जो आजाद भारत के रहनुमाओं की अहसानफरामोशी का प्रतीक रहे।
नई पीढ़ी दोषी है? या उसके बुजुर्ग या फिर आजाद भारत का यह सिस्टम, जिसने कभी बटुकेश्वर के बारे में उसे बताया ही नहीं? उनकी तो जयंती या पुण्यतिथि भी नहीं मनती रही है। इधर के दशक में बिहार सरकार को दत्त साहब तब याद आये, जब उनकी पत्नी अंजलि दत्त गुजर गईं। यह 2003 की बात है। लालू प्रसाद आए थे। राजकीय सम्मान के साथ उनकी अंत्येष्टिï हुई। अगर उनकी प्रतिमा की स्थापना की कवायद को छोड़ दें, तो यह सरकार के कर्तव्यों की पूर्णाहुति सी रही।
मैं बहुत पहले बटुकेश्वर दत्त की पुत्री भारती दत्त बागची से मिला था। दुनियादारी के स्तर पर दत्त साहब की इकलौती विरासत। जक्कनपुर का उनका घर 1959 में छोटे स्वरूप में बना। तब श्रीकृष्ण सिंह मुख्यमंत्री थे। सरकार ने जमीन के मामले में रियायत दी थी। दत्त साहब आजादी के बाद ही उपेक्षित हो गए। इस महान क्रांतिकारी को आजाद भारत में टूरिस्ट गाइड व ट्रांसपोर्ट के कारोबार भी करने पड़े थे। अब मैं भी मानने लगा हूं कि रोल मॉडल यूं ही नहीं बदले हैं? देशभक्ति से जुड़ी अपेक्षाएं क्यों सार्थक मुकाम नहीं पाती हैं?
बहरहाल, उनकी प्रतिमा की स्थापना शहीदों, उनकी शहादत और उनके इतिहास के अचानक जिंदा होने का मौका है। यह इसी भाव में कायम रहे, तो मुनासिब है।
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इस वीर को और जानिए …
जन्म : 1910
पिता का नाम : गोष्ठï बिहारी दत्त
जन्मस्थान : ओएरी (खंडा, वद्र्धमान, पश्चिम बंगाल)
शिक्षा : कानपुर में
कर्म-जीवन : हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के सक्रिय सदस्य बने
* बम बनाने के जानकार
* 8 अप्रैल 1929 को सेंट्रल असेम्बली में भगत सिंह के साथ बम व पर्चा फेंका
* 12 जून 1929 : आजीवन कारावास की सजा
* सेल्युलर जेल गए
* भूख हड़ताल से अंग्रेज सरकार की नींद हराम
* 1937 में बांकीपुर (पटना) जेल आए
* 1938 में रिहाई
* विधानपरिषद सदस्य बने
* 1964 में बीमार पड़े और 20 जुलाई 1965 को दिल्ली में निधन
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